Saturday, December 2, 2017

ये लखनऊ की सरज़मीं



पिछले हफ्ते जब उत्तर प्रदेश में निकाय चुनावों के नतीजे आये तो हर राष्ट्रीय टी वी  चैनल पर उत्तर प्रदेश छा गया। लखनऊ में तो इन चुनावों का ज़ोर बहुत अधिक था। लखनऊ ले लोगों में ज़बरदस्त उत्साह और ऊर्जा थी और ऐसा लग रहा था कि ये चुनाव स्थानीय नहीं राष्ट्रीय हैं !  
  वैसे, लखनऊ में वो  बात तो है , जो और शहरों से भिन्न है।  इस बात का अहसास यहाँ  के बाशिंदों को भी  है,  कि लखनऊ की एक भूमिका  है,  देश के  भविष्य को निखारने में.



तो आज मैंने सोचा कि  क्यों न लखनऊ को हिंदी फिल्मों में कैसे दर्शाया गया है और किन गीतों में लखनऊ का नाम आया है, यही देखा जाए. और इसलिए यह लेख भी हिंदी में ही लिखने का फैसला किया। या यूँ  कहें,  हिंदी -उर्दू में जो बहनें है और यह पहली बार है कि  इस ब्लॉग-लेखन में मैं यह प्रयास कर रहा हूँ।

हिंदी फिल्मों  गीतों में लखनऊ का ज़िक्र सबसे पहले उन फिल्मों में  हुआ जो राम चरितमानस  या राम की कहानी पर बनीं. उस समय के हिसाब से यह क्षेत्र अवध के नाम से  था।  तीस और चालीस के दशक में राम -सीता पर अनेक फिल्में बनीं और लगभग सभी में अवध का उल्लेख है।  1939   संत तुलसीदास में पंडित इंद्र चंद्र का लिखा गीत ' बन चले राम रघुराई ' में उन्होंने लिखा अवधपुरी ने नर-नारी ने , आंसू नदी बहाई !

चालीस के दशक में वी  शांताराम ने एक फिल्म बनाई जो हिन्दू-मुस्लिम सौहार्द पर एक उत्कृष्ट प्रयास था. इस फिल्म में हिन्दू पात्र कलाकार मज़हर खान ने और मुस्लिम पात्र गजानन जागीरदार ने निभाया था. इस फिल्म के दो गीतों में अवधपुरी  की बात है ( शायद राम राज्य की कल्पना को साकार करने के लिए पहले अवध का ज़िक्र ज़रूरी है !)

                                                         अवधपुरी  में प्रेम ही छाया !





1949   फिल्म राम विवाह में भी अवधपुरी के बारे में गीतकार मोती ने कहा :

धन्य धन्य है अवधपुरी ,
धन्य वहाँ की फुलवारी
जहां राम ने जन्म लिया है 
धन्य वहाँ के नर - नारी

पचास के  दशक के प्रारम्भ में , लखनऊ को लेकर एक मज़ाहिया ( हास्य -व्यंग्य ) गीत लिखा गया फिल्म संसार ( 1951 ), जिसे फिर पंडित इंद्र ने लिखा। शायद वे   बम्बई ( जिस नाम से मुंबई को उस समय जाना जाता था ) से आजिज़ आ गए थे और जब कहीं लौटने की मंशा हुई  तो वो शहर था..... जी हाँ, लखनऊ !
जे एम् दुर्रानी और गीता दत्त के गाये हुए इस गीत का मज़ा लीजिये... फिर कुछ और गप -शप   होगी

लखनऊ चलो अब रानी, बम्बई का बिगड़ा पानी !




उसी दशक में एक और मज़ेदार गीत बना , फिल्म दिल्ली दरबार ( 1956 ) में, जिसे शैलेन्द्र ने लिखा था. ये था लखनऊ के बांके के बारे में।  शब्दों से स्पष्ट है कि  यह एक इत्र बेचने वाले  की पुकार है.  ज़ाहिर है, लखनऊ के इत्र की खुशबू दूर दूर तक फैली हुई है : देखो लखनऊसे बांका आया रे , ए  जी  ले लो इतर




                                      

सरस्वती कुमार ' दीपक ' ने  1957  में फिल्म 'सती  परीक्षा के लिए "छोड़ अयोध्या का महल, चली राम के साथ "लिखा , जिसमे भारत की नारी का गुणगान किया गया। 


साठ के  दशक   की शुरुआत में गुरु दत्त ने कागज़ के फूल की  आर्थिक असफलता से  जो फिल्म बनाई , वो भी पूरी तरह लखनऊ  पर आधारित थी। लखनऊ के नवाबों के विषय पर बनी ये फिल्म " चौदहवीं का चाँद " 
सुपर हिट हुई ( इस फिल्म का उल्लेख पहले के एक लेख में भी है जो इसी ब्लॉग में मुस्लिम सामाजिक परिवेश पर बानी फिल्मों के बारे में था )  ,  जबकि इसका निर्देशन मोहम्मद  सादिक़ के ज़िम्मे था. इस फिल्म में लखनऊ की तारीफ़ में एक लाजवाब गीत मोहम्मद रफ़ी द्वारा गाया हुआ था   : शकील बदायूनीं का क़लाम  और रवि का संगीत ... 
                                                       ये लखनऊ की सरज़मीं  !





  सरस्वती कुमार 'दीपक' ने 1960  में फिर अयोध्या छोड़ने पर एक गीत लिखा, इस बार राम पर  (" राम अयोध्या छोड़ चले")  जो कि  फिल्म रामायण में दिखाया गया. 

सन चौंसठ की फिल्म 'दूज के चाँद ' में साहिर लुधयानवी ने एक भजन  लिखा था।  ये भी एक कमाल की बात है कि जब जब गीतकारों और शायरों ने राम भजन   लिखे, अवध का वर्णन बरबस आ ही जाता था।  मन्ना डे ने इस फिल्म में दो गीत गाये , एक कॉमेडी वाला ( फुल गेंदवा न मारो ) और दूसरा , गीता दत्त के साथ   भजन. संगीत था रोशन का 

बिनती सुनो मेरी  , अवधपुर के बसिया 






ऐसे ही भजन साठ के   फिल्मों में शामिल किये  गए :रोये अवधपुर वासी -भरत  मिलाप ( 1965 ) और सरयू के नीरे तीरे अवध नगरिया --लव कुश( 1967 ), पर ये धार्मिक विषयों पर बनी फिल्में थीं , तो यह तो अपेक्षित ही था। 

1967  में एक मुस्लिम परिवेश की फिल्म ( जिन्हें आम बोलचाल की भाषा में मुस्लिम सोशल कहा जाता था : आजकल ये बननी   लगभग बंद हो गयी हैं  ) "पालकी " में फिर एक ग़ज़ल आयी लखनऊ को लेकर और इसे भी लिखा था शकील बदायुनी ने, इस बार नौशाद की तर्ज़ पर।  गुलूकार फिर रफ़ी और ज़िक्र फिर इस शहर का जो अपने में  एक अलग शख्सियत  रखता है जैसे 


ऐ शहर -ऐ -लखनऊ तुझे मेरा सलाम







तो आइये ज़रा चर्चा करें लखनऊ की कुछ ख़ास बातों की ...
तहज़ीब, नफासत-नज़ाक़त तो अब शायद इतनी रही नहीं। एक समय था  कहते थे कि लखनऊ  कोई पान की गिलौरी  लेता है तो मुहं में डालने के पहले  देखता है की आस पास कोई ऐसा तो नहीं है जिसे वो पहले पेश की जा सके ! एक बार अपने दोस्त  पर की लखनऊ की क्या खासियत है, मैंने यही बताया।  मेरे मारवाड़ी मित्र  ने कुछ देर सोचने के बाद उसने पूछा "  वाला पान ले  कर लेता है , तो भी क्या उसका पैसा पेश करने वाला देगा ?

"पहले आप - पहले आप" में गाड़ी  क्या सचमुच छूट गयी थी  नवाब साहब की गाड़ी , ये भी किसी ने पूछा था। जब मैं  छोटा था तो  एक बार एक टीचर ने मुझसे कहा की लखनऊ जा रहे हो , क्या लाओगे मेरे लिए, तो मैंने कहा की लखनऊ दशहरी आमों  के लिए और नवाबों के लिए जाना जाता है, आम का तो सीज़न  नहीं है , किसी नवाब को ही ले आऊंगा   !

दोआबे का क्षेत्र और इसकी  गंगा-जमनी तहज़ीब लखनऊ का अभिन्न अंग रहा है , परन्तु -   वक़्त के थपेड़ों ने इसकी आभा को धूमिल कर दिया है. अब बड़ी बड़ी, क्या कहते हैं 'एस यू वी' और उन पर लगे बड़ी अब्दी पार्टियों के झंडे कुछ और की कहानी कहते नज़र आ रहे हैं.

पान की बात हुई है तो बता दें की पान बनारस का ही नहीं, लखनऊ का  मशहूर है , और अगर गीतकार नक़्श लायलपुरी की मानें तो पनवाड़नें   भी जो पान बेचती हैं ,  1972 की फिल्म बाज़ीगर ( जी हाँ , इस नाम की एक फिल्म पहले भी बन चुकी है ) में उन्होंने लिखा था

पनवाड़न हूँ  मैं लखनऊ की !


                              


सत्तर के दशक में बजरंगबली ( १९७६) फिल्म भी बानी जिसमें दारा  सिंह ने प्रमुख भूमिका निभाई. राम बने थे बिस्वजीत और सीता थीं मौषुमी  चटर्जी।  बड़े अभिनेताओं के साथ बनी इस फिल्म में अवध के राजा के नाम से एक गीत तो होना ही था. हालांकि गीत देख कर लगता है कि ये  गीत इस दशक की की भी फिल्म से लिया जा सकता था



                                    

पहले बम्बई छोड़ कर लखनऊ जाने की बात हुई थी और  फिर 1979  में फिल्म 'सरकारी मेहमान ' में यही बात दिल्ली को लेकर होने लगी।  मसला  है की अगर लखनऊ छोड़ कर  तो ज़रूर लुट जाओगे , जैसे की जनाब हसरत जयपुरी साहब कहते हैं , जो ख़ुद जयपुर छोड़ कर  बम्बई जा बसे  !


                                



इसके बाद लगता है , लखनऊ का जलवा कुछ कम हो गया, फिल्मों में और इसके बावजूद कि
 लखनऊ की पृष्ठभूमि पर उमराव जान और शतरंज के खिलाडी जैसी उम्दा फिल्में बनीं, लखनऊ का नाम हिंदी फिल्मों के गीतों में आने से बचता रहा.
 निर्देशक सुधीर मिश्रा की पहली कृति "ये वो मंज़िल तो नहीं " लखनऊ विश्वविद्यालय की याद ताज़ा करती है और अभी हाल में बनी फिल्म " मैं , मेरी पत्नी और वो " में भी इस संस्थान की और लखनऊ के अन्य स्थानों की झलक देखी  जा सकती है।    अक्सर फिल्मों की शूटिंग लखनऊ में यदा कदा  होती रही है ( जैसे जॉली एल एल  बी २ ) और कई चर्चित गाने लखनऊ में फिल्माए गए , पर वो कहानी फिर सही !

एक और चर्चित फिल्म थी   दावत - ए  - इश्क़ जिसमें  लखनऊ और उसके लज़ीज़ खाने को  मद्दे नज़र रखा गया है।

इसी बात पर मुझे अपने लिखे अशआर याद आ गए , सो पेश हैं 

एक दस्तरख्वान गोया ज़िन्दगी है/
खट्टी-मीठी और कसैली सालनों की//
अब तो ईदी और सिवैयां को भी तरसे /
ये मिला है माह भर रोज़ों के बदले //
आज बू-ऐ- ज़ाफ़रान आई कहाँ से ?
मेरे घर में कोई मेहमां तो नहीं है ?
इतना सारा प्यार और मीठी सी झिडकी /
गोया चूरन दे दिया , दावत खिला कर //


लखनऊ प्रायः  फिल्मकारों की दृष्टि से लुप्त हो गया , ऐसा लगा.
हाँ, अयोध्या और राम जन्म भूमि के मामले ने तूल  पकड़ा तो हिंदी फिल्म के गीतफरोशों ने उस पर भी गाने लिख मारे।  1989 में फिल्म 'बड़े घर की बेटी ' में  अयोध्या जैसा होने की कामना की गयी है। 


                                  


इधर पिछले कुछ वर्षों में एक बार फिर यह नाम लौटा   2003 में फिल्म बाग़बान में "होली खेले रघुबीरा , अवध में" ,  से इस राम की नगरी ने वापसी की. इस फिल्म ने कुछ पुराने मूल्यों की भी वापसी कराई और इसीलिए ये सराही गयी थी


                           

2010 की फिल्म राइट या रॉंग में लखनऊ की एक और खासियत का वर्णन है जो अभी तक छूटा हुआ था : जी हाँ, (टुंडे )कबाब , पर  गीतों के तेज़ी से गिरते हुए स्तर  को देखते हुए,  आश्चर्य नहीं कि  "लखनवी कबाब"  की तुलना "कुड़ी  के शबाब"  से की जा रही है. !


तेज़ी से बदलते समय में तकनीक ने रफ़्तार को और भी बढ़ा दिया. यही कारण है कि  बचपन की 'अमर चित्र काठ आज एनीमेशन फिल्मों के रूप में पेश की जा  रही है।  ऐसी ही एक फिल्म आयी 2012 में , नाम था "सन्ज़  ऑफ़ राम" जिसमें अयोध्या को लेकर एक मनभावन गीत भी था।  ये वास्तव में देखने लायक है !


                                                 


एक फिल्म लखनवी इश्क़ ( 2015 ) भी आयी पर उसके  एक गीत में नवाबों के शहर तक आ कर बात रुक गयी.

अब एक और लखनऊ की ख़ास बात है जो अभी तक नहीं बतायी. और वो है चिकन का कुरता।  पर घबराइए नहीं, हिंदी फिल्म वालों ने उसके लिए भी एक गीत रचा है, फिल्म का नाम है लाल दुपट्टा ( 2016 ) !
तो जाते जाते, आपको इसी गीत "लाल दुपट्टा , कुर्ता  चिकन का "  के साथ छोड़े जा रहा हूँ जिसमें हीरोइन कहती है कि  वो लखनऊ से है और लिफ्ट लेने को तैयार है !
धन्य हो !

 

                                         














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